जुलाई में जब बादल फूटा था-
हर तरफ बेबसी का आलम था,
एहसास पानी के आवेग में डूब रहे थे,
भावों का नाम-ओ-निशाँ नहीं था,
ख्वाहिशें लाश की तरह टपक रही थीं|
कुछ महीनों बाद
बेबसी को सब भूल चुके थे,
एहसास फिर उभर आये थे,
और ख्वाहिशों का भी जनम हो चुका था-
हर तरफ ख़ुशी झरनों सी फूट रही थी!
ऐसा लगता था जैसे सब
भूल चुके हैं
जुलाई की वो शाम,
परजिसने देखा था उसे
या जिसने महसूस किया था उसे,
उसका दिल पथरा चुका था
और शायद आंसू भी सूख चुके थे-
एक अजब सी खामोशी थी
जो हौले हौले उसे बनाती जा रही थी
जीती-जागती लाश!
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