बेपरवाह सी रात
और बेपरवाह सी मैं!
क्यों हो गयी हूँ इतनी बेफिक्र?
क्यों नहीं बचा कोई डर,
जबकि एक समय ऐसा भी था जब
ज़हन के हर टुकड़े में
बस घबराहट समाई रहती थी?
ज़रा सी बात पर
अमावस्या होने की आहट भी से
सीना कांप उठता था,
रूह थरथरा उठती थी
और मैं छुप जाती थी
किसी किताब के पीछे?
अब तो
न अमावस्या से रूह कांपती है
न पूनम के चाँद को देखकर
खुशी की गंगा बहती है –
अब तो मेरे रग-रग में
यूँ ही ख़ुशी भर उठी है
और बस गए हैं मेरे जिगर में
पूनम के कई चाँद!
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