आप किसी भी धार्मिक जगह जाएं वहां पुजारी दान करने के लिए कहते हैं। धर्म में दान करने के लिए कहते हैं । धर्म में दान का बहुत महत्व है। लेकिन अधिकांश लोग कुछ देते हैं। इसीलिए कि इससे कुछ फल मिलेगा। कम से कम पुण्य तो जरूर मिलेगा।
सोशल वर्क करने वाले लोग पुरानी दवाइयां कपड़े और व्यर्थ की चीजों गरीब को देते हैं। या नहीं चीजें भी जाए तो तो वे सस्ती और कामचलाऊ होती हैं । यह भला दान हुआ? इनकम टैक्स से बचने के लिए अगर आपने कुछ पैसा दान किया तो वह भी दान नहीं है दरअसल दान कृत्य नहीं है, एक भाव है देने का भाव। जब आप कुछ देख कर आनंदित अनुभव करते हैं या लेने वाले के प्रति आभारी होते हैं। तो समझे आपने दान किया।
दान की परिभाषा है उदारता और देने का भाव। देना ही आनंद है। देना उतना जरूरी नहीं, जितना देने का भाव जरूरी है। फिर देना तो उसके पीछे चला जाता है। और कई बार हम दे भी देते हैं, लेकिन देने का भाव बिल्कुल नहीं होता और तब दान झूठा होता है हम देते हैं लेकिन हम देते भी तभी हैं, जब हम कुछ देने के पीछे चाहते हैं। उससे भी सौदा होता है। एक आदमी कुछ दान कर देता है, तो सोचता है कि लोग जानेंगे, प्रशंसा होगी या इसके बदले उसकी तरक्की होगी जब लेने पर उसकी नजर है तो फिर दान नहीं रहा। इसीलिए पुरानी कहावत है - गुप्त दान महापुण्य। उसका अर्थ यह है कि देने से किसी का अहंकार ना बढ़े। दान जितना चुपचाप दिया जाए उतना अच्छा । उससे लेने वाले को बोझ नहीं लगता।
जैसे सूरज निकलता है और फूल खिल जाते हैं। सूरज कोई फूलों को खिलाने के लिए नहीं निकलता है और फूलों को खिलाने के लिए किसी दिन न निकले, तो बहुत संदेह हैं कि फूल खिले हैं और सूरज अगर एक एक फूल को पकड़कर खिलाने की कोशिश करें, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाए, शाम होते-होते थक जाए। सूरज के निकलने में ही फूल खिल जाते हैं। उसी तरह दान में ही मिल जाता है। सब कुछ। आपका हृदय खिल जाता है, आप सब के प्रति प्रेम और मैत्री का अनुभव करते हैं। दानी व्यक्ति प्रसन्नचित्त होता है, उसके अंदर एक फैलाव होता है,वह प्रेम से भरपूर होता है। जब दोनों में ही आनंद मिलता है तब है तब देना शुद्ध होता है।
मुझे देने दो
मैं नहीं जानती कि मुझे कितने दिन और जीना है। लेकिन,हे प्रभु! जितने दिन में जीवित रहूं, तुम मुझे किसी जरूरतमंद को आराम पहुंचाने दें, हंसकर या धन देकर, मीठा बोलकर या कुछ काम करके और तब मेरा जीवन व्यर्थ नहीं होगा और अगर मैं सतत देती रही तुम मुझे कोई चिंता नहीं कि मैं कितने दिन जीवित रहती हूं।
देने का भाव
देना एक क्रिया है। क्या समझ कर दिया, यह एक महत्वपूर्ण विचार है।देने में मात्रा, प्राथमिकता के साथ साथ भाव का सर्वाधिक महत्व है। अत : देते समय क्या भाव है, इसके प्रति सचेत रहें।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का हमने सदा से मुफ्त में सेवन किया है। अत : देते समय अभाव रखना चाहिए कि हम अपना कर्ज चुका रहे हैं, यह हमारा प्यारा भगवान, जो सदा से सचमुच हमारा अपना है, वह सब में समाया हुआ और उसकी सेवा कर हम भगवान की ही सेवा कर रहे हैं।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर। मेरा मुझमें कुछ नहीं है जो कुछ है सो तोर।
देने या अन्य प्रकार से सेवा करते समय, यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं कर्ता हूं, ना मैं दाता हूं, असल देने वाला तो भीतर छिपा बैठा है, मैं तो केवल उसका मुनीम हूं, मेरे द्वारा दिलाया जा रहा है, मैं तो निमित्त मात्र हूं क्या भगवान या यंत्र हूँ।
खिलाकर खाना, पहनाकर पहनना और देककर लेना यह जीवन का सिद्धांत बना लीजिए।
तुम पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ प्राणी है देना सीखो
दिमाग लगाओ संसार में, दिल लगाओ भगवान सें।
धन्यवाद
काजल साह
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