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22/06/2023 Kajal sah Education Views 194 Comments 0 Analytics Video Hindi DMCA Add Favorite Copy Link
निबंध : कैसे जन्म हुआ हम सभी की प्रिय भाषा?
यद्पी खड़ी बोली का प्रयोग 8वीं -9वीं शताब्दी की भाषा में मिलता है, परन्तु 13 वीं शताब्दी में खड़ी बोली में साहित्य के रूप में रचना होने लगी।
उद्योतन सूरी रचित कुवलयमाला कथा जो 778 ईस्वी में लिखा गया, उसमें एक हार प्रसंग का उल्लेख मिलता है। वहाँ पर तेरे - मेरे आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है।
पहले हिंदी भाषा दिल्ली के आस - पास के लोग की भाषा थी। इस भाषा बढ़ने का बड़ा कारण - जनसंपर्क था। खड़ी बोली को विस्तार मिला मुसलमानों के आगमन से। मुसलमान बाहर से आये थे और उनकी भाषा फारसी थी। मुग़ल साम्राज्य की स्थापना से भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना हुई। उनकी भाषा फारसी थी, लेकिन राज्य को चलाने के लिए उन्हें एक भाषा की आवश्यकता थी जिससे जनसंपर्क हो सके। ऐसे में खड़ी बोली का सहारा लिया गया। धीरे-धीरे फारसी मिश्रित खड़ी बोली से बोलचाल की नई शैली को विभिन्न नामों से जैसे - हिंदी, हिंदनी, रेखता हिंदुई नामों से जानना शुरू हुआ। बाद में यही परिवर्तित शैली उर्दू भाषा के रूप में परिवर्तित हो गई। मुसलमानों के फैलने से खड़ी बोली का विस्तार तीव्र गति से हुआ।
14 सातवीं शताब्दी में इस भाषा में पद्द /काव्य रचना होने लगी थी। अमीर खुसरो की पहेलियां।
 अमीर खुसरो ने कुछ गज रचनाएं भी की है,  पर इनका प्रमाण नहीं मिलता।  अमीर खुसरो ने कुछ गद रचनाएं भी कि ऐसे हमारे साहित्य इतिहासकार  मानते हैं। खड़ी बोली का विकास भारत के दक्षिण राज्यों में भी हुआ। परंतु अफसोस कि बात यह है कि औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। दिल्ली मुगल साम्राज्य की राजधानी होने के कारण उसका विकास होना स्वाभाविक था और आसपास के शहर जैसे आगरा आदि भी उन्नत अवस्था में थे।
 साम्राज्य के पतन के साथ ही पश्चिमी शहरों की समृद्धि तो नष्ट होती गई, परंतु इसके स्थान पर लखनऊ, मुर्शिदाबाद, पटना आदि पूर्वी शहर उन्नति को प्राप्त कर रहे थे। दिल्ली से मीर -इंशा आधी शायर पूर्वी प्रदेशों की ओर आने लगे। व्यापारी भी पूर्वी शहरों की ओर आने लगे और साथ में आई संपर्क भाषा खड़ी बोली। इस प्रकार बोली का विकास स्वाभाविक रूप से होता चला जा रहा था।
 तत्पश्चात भक्ति काल में भक्त कवियों ने भी खड़ी बोली का मिश्रित रूप प्रस्तुत किया -

    कबीर कहता जाता हूँ, सुनता है सब कोई
राम कहे भला होइगा, नहि तर भला न कोई।।
 खड़ी बोली में पद्य /काव्य रचना की परंपरा प्राचीन काल से रही, लेकिन जैसे इसका विस्तार संपर्क भाषा के रूप में हुआ, वैसे ही इस भाषा में गद्य रचना का विकास भी होने लगा
 मुगल बादशाह के दरबारी कवि गंग थे, इन्होंने चंद छंद  वरनन की महिमा लिखा इनकी रचना में खड़ी बोली गद्य का प्रमाणित रुप देखने को मिलता है।
 शिष्ट समाज की भाषा होने के कारण खड़ी बोली में गद्य की रचनाएं होने लगी। धीरे-धीरे इस भाषा का विकास होने लगा।
 रामप्रसाद निरंजनी पटियाला दरबार में लेखक थे, महारानी को कथा पढ़कर सुनाया करते थे। इनकी रचना - भाषा योग विशिष्ट थी।
प्रथम : पदमपुराण का भाषानुवाद : यह बसवा ( मध्य प्रदेश ) निवासी पंडित दौलत राम द्वारा रचित है।
दूसरा : मंडोबर का वर्णन-राजस्थान इनके लेखक अज्ञात है।

 फारसी, उर्दू से अलग बोलचाल की खड़ी बोली भाषा बनी। दद रचना के साथ-साथ काव्य रचनाएं भी होती गई। आधुनिक साहित्य का विकास अंग्रेजों के आगमन से ही हुआ। ईसाई मत प्रचारकों ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग कर हिंदी गद्य को प्रोत्साहित किया।
 फोर्ट विलियम कॉलेज का योगदान रहा हिंदी भाषा की उन्नति में। 1800 ईस्वी में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। इस संस्था में चार विद्वान हुए, जिन्होंने हिंदी गद्य का लेखन किया। जिनके नाम है -मुंशी सदासुखलाल, मुंशी इंशा अल्लाह खाँ, लल्लूलाल जी और पंडित सदल मिश्र।
 भारतेंदु युग में खड़ी बोली का प्रयोग गद्य में होने लगा, किंतु काव्य के क्षेत्र में ब्रजभाषा ही लोकप्रिय रही।धृधर  पाठक, बालमुकुंदगुप्त तथा पक्षधर माना जाता है।
  द्विवेदी युग में आचार्य महावीर प्रसाद के प्रयास से खड़ी बोली अपरिपक्वता, अव्यस्था से बाहर निकाल कर परिपक्व, परिमार्जित तथा व्यवस्था तक पहुंची। खड़ी बोली को स्थिरता प्रदान करने वालों मैं आचार्य द्विवेदी जी का नाम आदरणीय है।
धन्यवाद
काजल साह
                             

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