लिखती थी कोरे पन्नों में
अपनें उन ख़्वाबों कों
जब ना व्यक्त कर पाती थी
अपनें उन ख़्यालातों को
तब कलम चलाती थी मैं
तों मेरे सांसे चलती थीं
किसी गोरे कागज की बाहों में
अपनें उन लम्हों को जब खोजती
पाती खुद को तन्हाईयों में
समझ नहीं पाती क्या किया
हां इसलिए लिखना छोड़ दिया।
लिख नहीं पा रही अपनें
टूटे दिल अरमानों को
खोज नहीं पा रही हूँ कबसे
बिखरे उन अफसानों को
ढूंढ नहीं पा रही हूँ मैं
उन गोरे - गोरे कागज को
जहां लिख देती थी, कभी
अपनें बिखरे सभी जज्बातों को
लोगों की सोच नें रोका
ताना मिला कि पढ़ लिया कर
दुख दिया कि काम कर लिया कर
क्या मिलेगा लिख कर तुझे
यह सुन - सुन कितना जहर पिया
हाँ, इसलिए लिखना छोड़ दिया।
हौसला रुका था थोड़ी देर
पर हिम्मत टूटी नहीं मेरी
रुकी थीं, कुछ पल के लिए
दर्द हुआ, जों थीं तेरी
फिर निकल पड़ी, खोजने चली
अपनें उन गोरे कागज को
देखों अपना होंठ सी लिया
हां इसलिए लिखना छोड़ दिया।
धन्यवाद : काजल साह : स्वरचित
|