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09/12/2024 Kajal sah General Views 168 Comments 0 Analytics Video Hindi DMCA Add Favorite Copy Link
कविता:गांधारी की समवेदना

इतिहास के राजमार्ग पर चल कर पूर्वजों का कीर्तिरथ आता है आदर्शों के द्रुतगामी सैंधव बढ़ चले आह! अनुसरण न कर पाए हम पगचारी । ओ मेरे चक्षुहीन धृतराष्ट्र! तुम्हें दिग्भ्रम होता है, चतुड्रिक अंधकार है राह नहीं मिलती। में तुम्हारी वेदना की सहभागिनी बनूं अभेदय आवरण से ढंक लूं अपने भी दृष्टिपथ को ? द्रुतगामी सैंधव की टाप सुन पाएंगे हम, मिल पाएगी राह दोनों को गिरते - पड़ते? नहीं, चल न पाएंगे इस अनचीन्हे पथ पर हम मैंने ज्योति पाई है आओ,यह बांह गहो संबलहीन चल पाया है,कौन यहां, कब कहो! धन्यवाद शेखर जोशी

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