कभी - कभी लगता है
रात के अंधकार में
'हॉल्ट ' हू गोज देयर?' के बाद
दोस्त और दुश्मन एक ही कोड बोलते हैं।
कभी - कभी लगता है
रास्तों या चौराहों पर बाइबिल या कैपिटल हाथ के लिए
निरीह भिक्षु
या उत्साही क्रांतिदूत
कान तक मुँह लाकर
लिजलिजे शब्दों में फुसफुसाते हैं
पेट की दुहाई दे कर
झोली दिखाते है
(सचित्र कामशास्त्र मन को लुभाते हैं।)
शब्द
जो हीरे - जवाहरात की तरह कीमती थे
लोगों ने अपने घरों में गढ़ लिए है
बच्चों से लेकर बूढों तक
वैश्याओं से लेकर शरीफज़ादियों तक
एक ही तरह के शब्द बोलते हैं।
कभी - कभी लगता है
हमें अपने शब्दों की पहचान भूल गई है।
कवि : शेखर जोशी।
धन्यवाद
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