हमें नही पता था कि वह जो नेपाल की तरफ़ मुड़ गई थीं,वह बेग़म नही बल्कि हमारी क़िस्मत थी,जो हमसे मुँह मोड़ रही थी । वह आज ही का तो दिन था जब अवध की शान, ताक़त,हौंसला और उम्मीद मोहम्मदी खानम यानि बेग़म हज़रत महल दुनिया को छोड़ गई थी। आज उनकी पुण्यतिथि है,7 अप्रैल 1879 उनकी यौम ए वफ़ात का दिन है ।
अवध की वह बेगम जिसने लपक कर 1857 क्राँति की आग थामी थी। जिसने लखनऊ में अंग्रेज़ों के झण्डे को दुनिया में सबसे पहले ज़मींदोज़ किया था।नवाबो के किस्से तो खूब ज़बानों पर हैं, उनपर तो खूब बाते होती रही हैं मगर उनके ही बीच से उनकी नाज़ों में पली बढ़ी बेगम ने जब क्रांति की सख़्त तपिश सही उसका ज़िक्र कम ही होता है।
बेगम ने हर ओर मोर्चा लिया।सल्तनत की खूबसूरत ठण्डी हवाओं को सख़्त लू के थपेड़ो में बदलते देखा।अपनी नाक के नीचे खड़े पियादों को बदलते देखा।जब ज़मीन की वफ़ादारी की बात आई तो पल पल यही लखनऊ से नेपाल तक वफादारों को बालिश्त बालिश्त भर जागीरों में बिकते हुए देखा।अवध के नफीस तख्त से काठमांडू की तंग गालियों में ज़िन्दगी से लड़ने वाली मज़बूत,संवेदनशील,सहनशील और जुझारू बेगम का ज़िक्र आज तो कर ही लें।
जिस तरह 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र को हिंदुस्तान से बाहर बर्मा में दफनाया गया,उनकी यही तड़प थी कि अपने मुल्क में दो गज ज़मीन नही मिली । उसी तरह बेगम को भी दूर नेपाल में जगह मिली ।अपने मुल्क अपने अवध की ज़मीन इतनी तंग हो गई कि उसमें बेग़म के लिए जगह ही नही बची। बेगम ने चाहा ही क्या था,अपने अवध की आज़ादी । आज़ादी तो कल भी चुभती थी और आज भी चुभती है । वह टूटकर मिटकर जूझ गई अवध को आज़ाद देखने के लिए..
अफसोस तो तब होता है जब महिलाओं पर बराबरी और उनको आगे लाने वाले समाजसेवियों के बैनर में बेगम हजऱत महल नही होती हैं। अवध पर जान छिड़कने वालो की ज़बान पर बेगम हज़रत महल नही होती हैं।कवियों,लेखकों की गोष्ठियों में हज़रत महल नही होती हैं। हज़रत महल की ज़िन्दगी की कशमकश और मिट्टी के लिए तड़प और कभी जिस सल्तनत का सूरज न डूबता हो,उससे भिड़ जाना,कहाँ याद रहता है । अपने घोड़े की लगाम पकड़ कर,अवध के सिपाहियों संग, अंग्रेजों को हराने वाली,कुछ वक़्त ही सही,छीनकर अपनी सत्ता वापिस लेने वाली बेग़म हमारे सर का ताज हैं ।
यही वह हैरतअंगेज़,जुझारू बेगम थी जो बिरतानियो से लड़ती हुई अपने दिल की सबसे पसंदीदा सुकून गाह से निकली। अवध की खूबसूरत सरज़मीन से रुखसत होकर नेपाल के काठमांडू में आज भी सो रही है।
ज़रा सा बेग़म हज़रत महल को याद कर लीजिये शायद उनका जूझना नज़र ही आ जाए और उनके दामन में ख़ुशी का एक पल ही आए की उनके बाद के लोगों ने उन्हें याद तो रखा । शायद उनका काँटों पर चलना मखमल में बदल जाए।उनके दिल की धड़कन महसूस कीजिये वह आज भी हर बोलने वाले में ज़िंदा हैं।हर आज़ाद ख्याल में ज़िंदा हैं। बेगम मिट्टी से मोहब्बत और वफ़ादारी की एक कभी न मिटने वाली मोहर हैं । आज उनकी कब्र की तस्वीर लगाकर बस इतनी ही दुआ की जितनी तक़लीफ़,धोखे और ज़ुल्म आपने ज़िन्दगी में सहे, सब क़ब्र में फूल बनकर आपके इर्द गिर्द बिखरे रहें । आज हमारे लिए भी मुश्किल वक़्त है, हमारी वफाओं पर भी सवाल है, हमने भी धोखे खाए हैं मगर आपसे इतना तो सीखा ही है कि मिट जाएँगे मगर माटी से मोहब्बत और वफ़ादारी में रत्ती भर कमी नही आने देंगे, आपके पीछे चलने वाले हम लोग आपको आज खिराज ए अक़ीदत पेश करते हैं । गंगा जमुनी तहज़ीब की डोर हैं आप,जिससे हम सब बंधे हैं, नमन है आपको,कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से,आप देखिये,उस अवध की चौखट को,जो आपके जाने से इतनी उदास हुई कि कभी।पलट कर वैसे नही मुस्कुरा सकी, जैसे मुस्कुराती थी ।
बेग़म की जंग,इस मुल्क की जंग थी,ग़ुलामी से लड़ने की जंग थी । रानी लक्ष्मीबाई झांसी और बेग़म हज़रत महल अवध और बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र और मौलवी अहमद उल्ला शाह,नाना जी,तात्या टोपे और मंगल पांडे समेत हर सेनानी,एक तरह ही सम्माम से याद किया जाएगा,यह सब एक लक्ष्य के लिये लड़े और मिट गए मगर देखिये,हमारे दिलों में आज भी ज़िन्दा हैं ।
ज़ुल्म,अन्याय,अधर्म और गुलामी के खिलाफ लड़ने वाले हमेशा ज़िन्दा रहते हैं और रहेंगे । बेग़म हज़रत महल समेत 1857 क्रांति के हर सेनानी को नमन है...
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