बहुत से चेहरों ने मिलकर पैदा कर ली भीड़! भीड़ में हैं लोग गंदे पीले दुबले और मरियल खांसते - ठसते - पसरते - कांपते भय से चुप सुनसान मौन खिसकते पांव पड़ते - लड़खड़ाते- दीखते - गतिहीन दिशाहीन ये हज़ारों और हज़ारों और हज़ारों लोग हां, लोग ही हैं कतारों में भीड़ इतनी लम्बी गहरी इतनी घटिया मरियल इतनी दर्दनाक और दब्बू कौन जाने कितनी दूर तक फैलाव इसका क्या जाति क्या धर्म क्या राष्ट्र इसका और कहां पड़ाव इसका बस अंतहीन यह भीड़ जो हमने तुमने सबने मिलकर पैदा करनी शुरू कर दी है। कविता : उस गांव में शाम को जब हम थके होंगे, हारे होंगे तो वहां रुकेंगे उन ढाणियों के बीच जहां ढिबरियों के जलने की तैयारियां होंगी हम होंगे वहां बिना बुलाए मेहमान उस छोटे से गांव के लोग हमें घेर लेंगे और खोल देंगे अपना घर। उड़ेल देंगे सब कुछ देखते -देखते हम थालों पर बैठे होंगे खाने के लिए बजारे की रोटियां / प्याजे के टुकड़े / लहसुन की चटनी पिएंगे केशर - कस्तूरी सबकुछ भर जाएगा एक अजीब रूप - रस - गंध से आंगन के पार से आती होगी कोई आवाज रह - रहकर खनकती होंगी चूड़ियां ग्राम - गीतों की मधुर ध्वनि से घुघट उठाकर देखतीं मृगलोचनी बहुएं। धन्यवाद मानिक बच्छावत