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24/03/2025 Suraj Tiwari History Views 96 Comments 0 Analytics Video Hindi DMCA Add Favorite Copy Link
औरंगजेब आलमगीर की हुकूमत

औरंगजेब आलमगीर की दौरे हुकूमत में काशी/बनारस में एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था… शकुंतला को काशी/बनारस के सेनापति ने अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा… सेनापति ने शकुंतला बाप से कहा कि तुम अपनी बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल में 7 दिन के भीतर में भेज देना…. पंडित ने यह बात अपनी बेटी शकुंतला से कही, शकुंतला ने अपने पिता से कहा कि सेनापति से एक महीने का समय ले लीजिए कोई न कोई रास्ता निकल जायेगा… शकुंतला के पिता ने सेनापति से जाकर कहा कि, “मुझे महीने का वक़्त दो” सेनापति ने कहा “ठीक है! ठीक महीने के बाद भेज देना” पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “एक महीने का समय तो मिल गया है लेकिन अब?” शकुंतला ने मर्दाना लिबास पहना और अपनी सवारी को लेकर दिल्ली की तरफ़ निकल गई, कुछ दिनों के बाद दिल्ली पहुँची… औरंगजेब आलमगीर जुम्मा की नमाज़ के बाद जब मस्जिद से बहार निकलते तो लोग अपनी फरियाद एक चिट्ठी में लिख कर मस्जिद की सीढियों के दोनों तरफ़ खड़े रहते, और हज़रत औरंगजेब आलमगीर वो चिट्ठियाँ उनके हाथ से लेते जाते, और फिर फरियादी को इंसाफ फरमाते, शकुंतला भी चिट्ठी देने वालों की क़तार में जाकर खड़ी हो गयी… शकुंतला के चहरे पे नकाब था, और लिबास मर्दाना पहने हुई थी, जब उसके हाथ से चिट्ठी लेने की बारी आई तब हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने अपने हाथ पर एक कपडा डालकर उसके हाथ से चिट्ठी ली… तब वो बोली महाराज! मेरे साथ यह नाइंसाफी क्यों? सब लोगों से आपने सीधे तरीके से चिट्ठी ली और मेरे पास से हाथों पर रुमाल रख कर? तब औरंगजेब आलमगीर ने फ़रमाया कि इस्लाम में ग़ैर मेहरम को हाथ लगाना हराम है… और तुम लड़का नहीं लड़की हो, शकुंतला बादशाह से अपनी फरियाद सुनाई, बादशाह हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने उससे कहा “बेटी! तू लौट जा तेरी डोली सेनापति के महल पहुँचेगी अपने वक़्त पर…” शकुंतला सोच में पड़ गयी के यह क्या? शकुंतला अपने घर लौटी तो उसके बाप (पंडित) ने पूछा क्या हुआ बेटी? तो वो बोली एक ही रास्ता था मैंने हिन्दोस्तान के बादशाह के पास गयी थी, लेकिन उन्होंने भी ऐसा ही कहा कि डोली उठेगी, लेकिन मेरे दिल में एक उम्मीद की किरण है, वो ये है कि बादशाह ने मुझे बेटी कह कर पुकारा था… और एक बाप अपनी बेटी की इज्ज़त नीलाम नहीं होने देगा… फिर वह दिन आया जिस दिन शकुंतला की डोली सजधज के सेनापति के महल पहुँची, सेनापति ने डोली देख ख़ुशी में फकीरों को पैसे लुटाना शुरू किया… जब पैसे लुटा रहा था तब एक कम्बल-पोश फ़क़ीर जिसने अपने चेहरे पे कम्बल ओढ रखी थी… उसने कहा “मेरे हाथ में पैसे दे” उसने हाथ में पैसे दिए और उन्होंने अपने मुह से कम्बल हटाया तो सेनापति देखकर हक्का बक्का रह गया क्योंकि उस कंबल में कोई फ़क़ीर नहीं बल्कि औरंगजेब आलमगीर खुद थे… औरंगजेब आलमगीर ने इंसाफ फ़रमाया: 4 हाथी मंगवाकर सेनापति के दोनों हाथ और दोनों पैर बाँध कर अलग अलग दिशा में हाथियों को दौड़ा दिया गया… और सेनापति को चीर दिया गया… फिर औरंगजेब आलमगीर ने पंडित के घर के सामने चबूतरे के पास नमाज़ अदा की… ”तब शकुंतला के बाप (पंडित) और काशी/बनारस के हिंदुओं ने उस चबूतरे के पास एक मस्जिद तामीर की, जिसका नाम “धनेडा की मस्जिद” रखा गया… और पंडितों ने ऐलान किया के ये बादशाह औरंगजेब आलमगीर के इंसाफ की ख़ुशी में हमारी तरफ़ से इनाम है… और सेनापति को जो सजा दी गई वो इंसाफ़ एक तख़्त पर लिखा गया जो आज भी धनेडा की मस्जिद में मौजूद है" -संदेशवाहक

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