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कविता : थप्पड़
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कविता : थप्पड़
उसने मारा था मुझे थप्पड़
क्योंकि मांग लिया था
उससे अपना हक
गिरा दिया मुझे उसने
खुद को ऊपर करने के लिए
गिरी थी मैं, पर टूटी नहीं थी
ठोकर खाई, थप्पड़ खाई
पर रुकी नहीं, मैं
ताना मिला मुझे
सम्मान छीना गया मेरा
समाज में नीचे गिराया मुझे
पर रुकी नहीं मैं
नहीं दिया मुझे दर्जा
इंसान के रूप में
हमेशा नीचे गिरा कर रखा
मुझे किसी पत्थर की तरह
किसने मारा था मुझे थप्पड़
क्योंकि
मैंने मांग लिया था
अपना ही हक़।
धन्यवाद : काजल साह :स्वरचित
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