कविता : कारखाना
यह कारखाना है
पुर्जो का ताना - बाना है
पुर्जे कुछ बड़े हैं
पुर्जे कुछ पतले हैं
पुर्जे कुछ मोटे हैं
मोटे की रगड़ से छोटे कभी जलते हैं
अरे भाई : दुनियाँ के काम यूँ ही चलते हैं।
रगड़ कुछ कम हो
ग्रीज दो, तेल दो
जिंदगानी ड्रामा हैं
चार दिन खेल लो।
मन में नफ़रत हो पर मुँह से राम राम कहो
तीन कौड़ी के आदमी को माई - बाप सलाम कहो।
पुर्जो की ज़िन्दगी भी अभिनय ही अभिनय है।
कारखाना -2
अभी आठ की घंटी बजते
भूखा शिशु सा चीख उठा था
मिल का सायरन
और सड़क पर उसे मनाने
नर्स सरीखी दौड़ पड़ी थी
श्रमिक जनों की पाँत
यंत्रवत, यंत्रवेद से।
इस भीड़ में भाग रहा है अपना कल्लू
वहीं गेट पर बड़े रौब से
घूम रहा है फोरमैन भी
कल्लू की वह सुखी काया
शीश नवाती उसे यन्त्रवत।
आवश्यक है यह अभिवादन
सविनय हो या अभिनय केवल
क्योंकि यन्त्रक्रम से चलता श्रम
गुरुयंत्रो की रगड़ - ज्वाल से
जल जाएँ न यंत्र लघुत्तम
है विनय चाटुता तैल अत्युत्तम।
धन्यवाद
कवि - शेखर जोशी
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