तुम्हारी मुँदती आँखों का यह मूक प्रश्न :
इस पगले को कुछ दे कर भी क्या होगा!
मुझ तक संवेदित होता है।
मुझको भी दे जाना
पिता ! दायभाग मेरा मुझको भी दे जाना।
बड़के को
जो होनहार है
जिसके घर - घर में टोले भर में चर्चे हैं
जिसके हाथों की रेखाओं में
कल तुमने चंद्र - सूर्य देखे हैं
जीवन की सीमित सफलताओं के सारे अनुभव दे जाना।
मँझले को
जो सौम्य शिष्ट है
जिसने आँख उठाकर कभी किसी से बात नहीं की
घर में भी ऐसे रहा कि जैसे अतिथि रहा हो
जीवन भर की विवश नम्रता उसे सौंपना।
छोटे को
जो अबोध है
घुटनों चल कर अभी अभी
जो उधर गया हैं
वह पथ दे जाना
जीवन भर जिसमें तुमने काँटे बीने हैं।
इस अयोग्य को
उस छोटे अँधियारे कमरे की
कुंजी दे जाना पिता!
जहाँ छिप - छिप कर जाते
मैंने तुमको अक्सर देखा है।
क्रूद्ध न होना पिता
तुम्हारे पीछे - पीछे मैं भी उस कमरे में आया हूँ
जब जब तुमने उस कमरे में संचित
स्वप्नों, विश्वासों, आकांक्षाओं को
अपने आँसू से नहलाया है
मैंने भी तब तब
अपनी आस्था से उनको सहलाया है।
पिता!
मुझको भी वह अँधियारा कमरा
उतना ही प्रिय है
दे जाना
उस कमरे की कुंजी मुझको ही दे जाना।
धन्यवाद
शेखर जोशी : कवि
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