आओ तुम आओ मेरी कविता में बैठो इस कल्पना की नाव में जो मैंने बनाई है और अब उसे खेऊंगा अपने उगाए सपनों में दिखाऊंगा तुम्हें नदी – नाले – पोखर सघन वन बीहड़ पहाड़ों से गुजारूगा तुम्हें भीतर ले जाऊंगा तुम्हें हर वन के एकांत में जहां वनपाखी गाते होंगे गीत कुलाचें भरते होंगे मृग दहाड़ते होंगे सिंह और तुम घाट पर बैठना देखना किनारे पर कच्छपों के झुंड उस मैली –घिनौनी दुनिया से दूर जहां चुल्लू भर पानी और विषाक्त हवा जीवन को लील जाती है कर्जदार बनाती है यहां कोई कुछ नहीं कहेगा तुम्हें जी भर कर लो शुद्ध हवा फेफड़ों में उतार दो आगे चलो मैं तुम्हें हरे – भरे खेतों में ले जाऊंगा जहां पकते हुए धान की रक्षा करती ग्राम युवती अपने गुलेल से पक्षियों को उड़ाती गीत गाती है उसकी उमंगें तमाम खेतों पर उड़कर लहराती हैं चलो उस किसान की ढाणी में ले चलता हूं तुम्हें जहां उसकी वधू भोजन कराएगी पल्लू से झांककर देखेगी अपने पाहुन को पीतल की थाली में परोसेगी फली का साग बाजरे की मोटी रोटी प्याज के टुकड़े और लहसुन की चटनी किसान कृतकृत्य हो जाएगा धन्य हैं उसके भाग्य जो उसकी मरेया में पाहुन आए लोटे में भर कर देगा मीठा पानी अपने कुएं का तुम अपने जन्म– जन्मांतर की प्यास बुझा लेना फिर मैं तुम्हें। Part -2 (जल्द ही ) मानिक बच्छावत
Accha Poem Hai Didi