बात जुलाई 1993 की है, इन दिनों मैं इलाहाबाद के प्रमुख अखबार नार्दन इंडिया पत्रिका और अमृत प्रभात में न्यूज़ फोटोग्राफर के तौर पर कार्यरत था। मैं अच्छी तरह जानता था कि अखबार का पाठक रोज-रोज धरना प्रदर्शन उद्घाटन सेमिनार हिंसा मारपीट,नेताओं की तस्वीरें देख देख कर बोर हो जाता है। इसलिए मेरी कोशिश होती थी कि मैं कम से कम हफ्ते में एक दो ऑफबीट तस्वीरें जरूर अपने रीडर्स के लिए लेकर आऊं।
इसके लिए मैं आमतौर से कैमरा लेकर शहर की सड़कों,गलियों और बाजारों में यूं ही धूल फांका करता था कि शायद कोई अच्छा दृश्य मिल जाए ।घर और एन आई पी ऑफिस के बीच सिविल लाइंस पडता था। दिन भर का काम समेटने के बाद जब मैं शाम ढलने से पहले ऑफिस जाता तो सिविल लाइंस में किसी जगह पर अपनी बाइक खड़ी करके आधा पौन घंटा तस्वीर की खोज में टहल लेता था। पचासों बार मेरे हाथ कुछ खास नहीं लगा और मैं ऑफिस चल देता था।
एक दिन अचानक ऐसे ही शाम 5:30 बजे का वक्त रहा होगा, कोहिनूर से आगे बढ़ते हुए पैलेस सिनेमा तक पहुंचते मुझे क्वालिटी रेस्टोरेंट के सामने रोड पर यह एम्बेसडर कार और महिला दिखीं। एक झटके में नजर पड़ते ही मुझे लगा मेरी लॉटरी लग गई। क्योंकि इतने ग्लैमरस और फैशनेबल ड्रेस में शहर की सड़कों पर कभी ऐसा नजारा नहीं दिखा। लेकिन आर्मी की फ्लैग-कार और उसके ऊपर लाल नीली बत्ती देखकर नजदीक जाकर फोटो खींचने का सवाल ही नहीं था। मैंने पैलेस सिनेमा के सामने सड़क के इस पार 100 गज दूर से ही 2-3 तस्वीरें खींच ली।ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म का जमाना था तस्वीर तुरंत देखी नहीं जा सकती थी। मुझे इस बात का अंदाजा था कि इतनी दूर से खींची गई यह तस्वीर अखबार के किसी काम की नहीं होगी।
इतना बड़ा मौका मेरे सामने आने के बाद मैं इसे गंवाना नहीं चाहता था।अतः हिम्मत करके आगे बढ़ने के सिवा कोई चारा नहीं था। तस्वीर खींचने के लिए पंगा लेने, लाठी खाने और पिटने का मेरा पुराना रिकॉर्ड था, इन सब से मेरा डर निकल चुका था। इसके पहले कि वह चल दे, मैं तेज रफ्तार से ठीक उनके सामने पहुंचा, वैसे तो मैं हिंदी में बात करता हूं,लेकिन लगा यह महिला हिंदी न समझ पाएंगी,इसलिए उन्हें अंग्रेजी में अपना और अपने अखबार का परिचय दिया, और पूछा क्या मैं आपकी कुछ तस्वीरें खींच सकता हूं। बिना देरी किए उत्तर मिला - "I dont Mind".
उनका इतना बोलना मुझे कल के अखबार का फ्रंट पेज दिखने लगा। जैसे ही मैं उनकी तस्वीर खींचने लगा वह कार से दूर आस-पास टहलने लगीं। इस बीच मैंने अपना लेंस भी बदला, लेकिन मजा तब आया, जब उन्होंने सिगरेट का पैकेट निकाला और और जलाकर सिगरेट पीने लगी।मुझे लगा वह सिगरेट पीते हुए फोटो नहीं खींचने देंगी। लेकिन मैं गलत था।सिगरेट पीते हुए हैं वह आकर जैसे पोज देने की अदा में अपनी कार के बोनट पर खड़ी हो गई। उनके बैकग्राउंड में आर्मी की फ्लैग - कार ने तस्वीर को और जबरदस्त बना दिया। मैंने तीन तस्वीर खींची थी, तभी अचानक आर्मी की वर्दी में ड्राइवर सामने सोनी कैसेट सेंटर से एक ऑडियो कैसेट लेकर चला आया, महिला ने ड्राइवर से चलने को कहा और पलक झपकते ही वह कार के अंदर बैठी और गाड़ी वहां से हवा हो गई। मैं उनसे कोई परिचय भी नहीं पूछ पाया।
मुझे जबरदस्त तस्वीर मिल चुकी थी मैंने गाड़ी उठाई ऑफिस पहुंचा और हिंदी अंग्रेजी दोनों संपादकों से कहा आज फ्रंट पेज पर एक बड़ी तस्वीर के लिए जगह खाली रखिएगा। उन्होंने पलटकर कहा हां हां पहले तस्वीर लाओ फिर देखते हैं।एक घंटे के बाद ऑफिस के डार्करूम से फुल साइज की फोटोग्राफ बनाकर गीली ब्लैक एंड व्हाइट प्रिंट मैंने संपादक वी एस दत्ता जी की टेबल पर रख दिया।
उसके बाद हिंदी अमृत प्रभात के संपादक को भी बुला कर उन्होंने डिस्कस किया और फोटो छापने से मना कर दिया।
मुझसे कह दिया गया अगर यह फोटो कल अखबार में छापा गया तो दो ट्रक आर्मी वाले भर कर आएंगे और इस दफ्तर को तहस-नहस कर देंगे। ऐसा पहले शहर के अन्यत्र कई मामलों में वह लोग कर चुके थे।
मेरी सारी मेहनत मिट्टी में मिलने वाली थी। उस दिन एडिटोरियल के सभी स्टाफ ने मेरी तस्वीर की जमकर तारीफ की, लेकिन छापने की विवशता सामने थी। मेरे लाख समझाने के बावजूद उन्होंने कहा कि आपके पास लिखित परमिशन नहीं है,आपको उस महिला ने जबानी इजाजत दी है, जिसका कोई वजूद नहीं।
मेरा मन रखने के लिए कहा गया कि इस पर अंतिम निर्णय अखबार के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री तमल कांति घोष के कल दिन में आने पर ही होगा।
अगले दिन 11:00 बजे टी के घोष साहब आ गए, मैं उनका चाहेता फोटोग्राफर था, मेरी फोटो कवरेज से वह गदगद रहते थे और मुझे अखबार में स्पेस और बाइलाइन मिलने से मैं गदगद रहता था। दोनों संपादक महोदय और साथ में अखबार की क्वालिटी कंट्रोलर और असिस्टेंट एडिटर Mrs. Lucinda Nelson Dhavan धवन ने मीटिंग की। अंत में मुझे भी बुलाया गया और फैसला सुनाया गया कि यह तस्वीर फ्रंट पेज पर छपेगी, इस शर्त पर कि श्रीमती धवन इसका चित्र परिचय/कैप्शन इस तरह लिखेंगी, ताकि छपने के बाद कोई मानहानि का दावा ना किया जा सके। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि श्रीमती लुसिंडा धवन हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) आर एस धवन जी की पत्नी है)। इस कैप्शन के साथ अगले दिन सुबह तस्वीर छपी " "Taking a cool look around the Civil lines market in Allahabad, this young lady attracted plenty of stares herself recently. Patrika photo by: S.K. Yadav. "
और हिंदी का चित्र परिचय था- "सिविल लाइंस की एक खुशनुमा शाम का लुत्फ लेती एक युवती। फोटो: एस के यादव
.........आर्मी के सब एरिया कमांडर (ब्रिगेडियर) ने सुबह 7:30 बजे Defence PRO को फोन किया और कहा आजका NIP देखा तुमने, ठीक 8 बजे मेरे रेजीडेंस आओ।
......लेकिन यह कहानी बाद में, पहले मेरे दफ्तर की बात। सुबह शहर के दोनों अखबार NIP और अमृत प्रभात के प्रथम पृष्ठ पर टॉप पर छपी इस तस्वीर ने शहर में एक तरह से सनसनी फैला दी थी। तब लैंडलाइन फोन का जमाना था, सुबह से मैं टेलीफोन पर अपने शुभचिंतकों की बधाइयां स्वीकार करता रहा। इसमें बहुत सारे राजनीतिक लोग भी थे, जो किसी भी पत्रकार को बधाई देने का कोई भी मौका छोड़ते नहीं थे, हालांकि प्रशंसा सभी को अच्छी लगती है और मुझे भी।
मैं नहा धो तैयार होकर ऑफिस की मीटिंग के लिए 10 मिनट पहले ही पहुंच गया, ऑफिस में एक हीरो की तरह मेरा स्वागत जो किया जाना था। मैं पत्रिका हाउस के गेट से अभी अंदर दाखिल ही हुआ था कि मुझे अखबार के मुख्य वितरण एजेंट मिल गए, बधाई देना तो दूर मेरे ऊपर फट पड़े-"अरे यादव जी! जब इतनी शानदार तस्वीर रहा करें तो पहले से बता दिया कीजिए मैं दस बीस हजार एक्स्ट्रा कॉपी छपवाने का ऑर्डर दे देता, भोर में जब मैंने अखबार देखा और प्रेस में फोन किया तो बड़ी मुश्किल से 4-5 हजार extra कॉपी ही समय से छप कर मिल सकी " ।
मेरे लिए यह बहुत बड़ा कंपलीमेंट था।
ऑफिस की मीटिंग में सभी ने मुझे बधाई दी। और फिर सब काम पर लग गए। लेकिन मेरा दिमाग कहीं और चल रहा था। एक भय भी सता रहा था कि इस पर आर्मी वालों की क्या प्रतिक्रिया होती है।
24 घंटे सकुशल बीत गए, तब जान में जान आई। लेकिन मन में उथल पुथल और जिज्ञासा थी, कि आखिर इस शानदार तस्वीर के छपने के बाद उस लेडी की और आर्मी वालों की क्या प्रतिक्रिया है? 2 दिन बाद मैं किसी काम से टाइम्स ऑफ इंडिया के बिजली घर के पास ऑफिस में गया, सीढ़ियों से चढ़ते समय डिफेंस के पीआरओ (संभवतः मेजर) डीडी मिश्रा सीढ़ियों से उतरते मिल गए। डीडी मिश्रा यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज में एनसीसी में मेरे 1 साल सीनियर थे। हम लोगों के बीच दोस्ताना रिश्ते थे। डी डी मिश्रा ने देखते ही मेरे पीठ पर हाथ ठोका, और कहा " बेटा बच गए नहीं तो तुम्हे अंदर करवाने की पूरी व्यवस्था थी"
मैं यही तो जानना चाह रहा था,मैं उन्हें पकड़कर नीचे चाय की दुकान पर ले गया और उनसे कहा बताइए क्या हुआ। मित्र होने के नाते उन्होंने अंदर की सारी बात खोल कर मुझे बता दी।
डीडी मिश्रा के शब्दों में - " जब अखबार सुबह ब्रिगेडियर साहब के टेबल पर पहुंचा तो वह तस्वीर देखकर आग बबूला हो गए। प्रोटोकॉल के मुताबिक मीडिया मैं देखता हूं, तो उन्होंने मुझे फोन किया और 8:00 बजे घर पर तलब कर लिया। जब मैं उनके घर पहुंचा तो एन आई पी उनके टेबल पर सामने रखा था, उन्होंने पूछा की अखबार और फोटोग्राफर के खिलाफ मामला बनता है? मैंने कहा जी, जरूर बनता है। फिर उन्होंने जानना चाहा कि क्या मामला बनता है? तो मैंने कहा वैसे तो सर कोई मामला नहीं बनता। इतना सुनकर ब्रिगेडियर साहब हंसे और बोले तो फिर क्या जाने दिया जाए? मैंने कहा हां सर मेरे हिसाब तो जाने ही दिया जाए। ब्रिगेडियर साहब बोले ओके, मैं उन्हें सैल्यूट कर के पलटने ही वाला था, कि उन्होंने कहा वैसे तस्वीर बहुत अच्छी है और हंस दिए। मैंने भी कहा जी सर तस्वीर वाकई बहुत अच्छी है।"
.....मैं सांस रोककर डीडी मिश्रा के एक-एक शब्द सुनता रहा। फिर उन्होंने कहा बेटा दोस्त थे, इसलिए बचा लिया, नहीं झड़ाते फुंकाते ना बनता। हालांकि मैं समझ रहा था कि मिसेज लुसिंडा धवन का सूझबूझ भरा कैप्शन काम कर गया है।
मैंने जिज्ञासा जाहिर की कि पहले यह बताओ वह लेडी कौन थी। उन्होंने कहा कि वह ब्रिगेडियर साहब के किसी समकक्ष मित्र, जो शायद गोवा में पोस्टेड हैं, उनकी बेटी है, इलाहाबाद घूमने आई थी। उसकी मां फॉरेनर है।
मैंने पूछा उस लेडी की तस्वीर पर क्या प्रतिक्रिया थी? मिश्रा ने कहा वह अगले दिन वापस चली गई थी। मेरे अखबार ने यह तस्वीर छापने में एकदिन देरी कर दी थी, जिसके कारण उस लेडी और और टॉक ऑफ दी टाउन मॉडल अपनी इतनी शानदार तस्वीर नहीं देख सकीं और न ही मुझे उनकी प्रतिक्रिया ही मिल सकी।
यह एक संयोग ही था कि डिफेंस पीआरओ मेरे छात्र जीवन के मित्र थे, वरना अंदर की यह बातें मैं कभी जान न पाता।
इस बीच अखबार के संपादक वी एस दत्ता जी ने एक दिन मुझे अपने कक्ष में बुलाया और कुछ पत्र मेरे सामने रखते हुए कहा कि यह लेटर टू एडिटर है , जिसमें इस तस्वीर के लिए फोटोग्राफर को, संपादक को और अखबार को कोसा गया है, और कहा गया है कि इस तरह की तस्वीर अखबार में छापने का क्या औचित्य है। एक पत्र में तो सीधे-सीधे फोटोग्राफर की अश्लील मानसिकता के लिए निंदा करते हुए संपादक को भी आड़े हाथों लिया गया। पत्र लिखने वालों में एन आई पी के कई नियमित महिला और पुरुष पाठक,कई इंजीनियरिंग, मेडिकल और विश्वविद्यालय के छात्र और छात्रायें शामिल थे।मजेदार बात यह थी कि पुरुष तस्वीर के खिलाफ मोर्चा संभाल रहे थे और महिलाएं तस्वीर को डिफेंड करते हुए पत्र लिख रही थी। मैंने दत्ता साहब से कहा कि सर यह सब मत छापिए। दत्ता सर बोले एक-एक पत्र छापते हुए मैं पूरी सीरीज छापूंगा।
उन्होंने मुझे समझाया कि इसमें चिंता करने की कोई बात नहीं आखिरकार महीने भर आपकी तस्वीर पर चर्चा तो होगी इसी बहाने। आज फेसबुक की इस पोस्ट पर हो सकता है, कि कई मित्र ऐसे भी हों, जिन्होंने उन दिनों पत्र लिखा हो और इन पंक्तियों को आज पढ़ रहे हो।
बहरहाल इस तस्वीर ने लंबे समय तक नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका और अमृत प्रभात के पाठकों के दिलो दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी थी। इलाहाबाद के दंगों, विश्वविद्यालय के हिंसक आंदोलनों और चुनावी हिंसा के दौरान अपनी एक्शन और लाइव तस्वीरों के कारण मुझे काफी ख्याति मिल चुकी थी, लेकिन इस एक तस्वीर ने मुझे एक अलग तरह की पहचान दी। आनंद तो तब और बढ़ जाता है, जब तीन दशक बीतने के बाद भी मुझे इस तरह के कॉन्प्लीमेंट मिलते हैं कि शहर अब इतना आधुनिक, फैशन परस्त और ग्लैमरस हो गया है, लेकिन इसके बावजूद इस तस्वीर का कोई मुकाबला नहीं।
कुछ लोग इस तस्वीर को एक झटके में मिल गया भाग्य का अवसर मान सकते हैं,लेकिन जिन्होंने मेरी यह स्टोरी पढ़ी है वही इस तस्वीर का असली मर्म समझ सकते हैं।
इस स्टोरी को मैं फेसबुक पर बहुत दिनों से लिखना चाह रहा था, लॉकडाउन की फुर्सत ने आज यह अवसर दे दिया।
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