सुहागन स्त्री से जब कहा गया तेरा सिंदूर चला गया तेरी माँग उजड़ गई तब से वह अपने प्रेम और अपने जीवन साथी के जाने के शोक से अधिक अपने इस सुहाग प्रतीक धारण करने के औचित्य के न होने का शोक अधिक मनाती पाई जाने लगी, सुहाग के चले जाने से शोक से अधिक उसे स्वयं की देह को इन प्रतीकों के बगैर देखने की कभी कल्पना भी न करने का मानसिक आघात अधिक रहा ! सुहाग से जुड़े प्रतीकों के न होने का दुख , यदि प्रतीक न भी बने होते तो भी जीवन साथी के जाने के बाद भी उतना ही रहने वाला होता है! विवाह के मूल में जो प्रेम औंर उससे जुड़े भाव हैं, उन्हें इन सब प्रतीकों के फेर में सोचने और अनुभव करने का समय शायद कुछ कम ही मिलता है ! पति चला जाए तो पत्नि से ये सब प्रतीक बड़ी ही निर्दयता से छीन लिए जाते हैं लेकिन पत्नि न रहे तो उसके होने का कोई प्रतीक उसके पति के पास होता ही नहीं जो छीना जा सके! जबकि एकदूजे के बिना गति दोनों की एक सी ही होती है ! समाज स्त्री के साथ दो बार निर्दयी होता है , पहली बार तब जब उसे सुहाग प्रतीक से देह सजाने का आदेश देता है और दूसरी बार तब जब पति के न रहने पर उसे ये प्रतीक उसकी देह से हटाने का आदेश देता है ! जबकि एकदूजे से प्रेम दोनों ही करते हैं पति भी पत्नि भी, एक दूजे के बिना अधूरे दोनों ही हैं पति भी और पत्नि भी! जीवनसाथी खोने का दुख पत्नि के हिस्से किसी पुरुष की पत्नि जाने के दुख से जरा सा अधिक आता है क्योंकि उसके पलड़े में पति के जाने के साथ साथ अपनी देह से सुहाग के प्रतीक हटाए जाने का दुख भी शामिल होता है! सच कहूं तो सुहाग के प्रतीकों के जाने के दुख का वजन सुहाग के जाने के दुख के वजन से अधिक होता है! किसी स्त्री के पति को खोने के पश्चात भी यदि उसकी सूनी माँग में सिंदूर और सूने माथे पर बिंदिया का हमें आभास होता रहता है तो सोचो स्वयं वह किस मनोदशा से गुजर रही होगी इन प्रतीकों को देह से हटाने के आदेश के पश्चात जो उसकी देह पर न होते हुए भी हमारी उन प्रतीकों को उसकी देह पर देखने की अभ्यस्त आँखों को अपने होने का आभास देते रहते हैं ! यह सब कुछ बहुत कठिन है . बेहद कड़वा है लेकिन सत्य है! मैं स्वयं सुहाग प्रतीकों के प्रति गहरी आस्था रखती हूं लेकिन जब किसी का सुहाग चिन्ह छिन जाता है तब सोचने को विवश हो जाती हूं कि उस स्त्री के भीतर कितना कुछ किस कदर बिखरा पड़ा होता होगा ! उस स्त्री को ढाँढस बधाते हम उसके चारों ओर सुहाग प्रतीकों के न होने की याद दिलाने की पूरी तैयारी रख कर निश्चिंत हो जाते हैं कि वह सुहाग जाने का दुख देर सबेर ही सही भुला देगी! सदा सुहागन का आशीर्वाद हम स्त्रियों को मौखिक में नहीं लिखित में लेना चाहिए सभी से..... क्योंकि जितनी बार भी यह आशीर्वाद किसी से मिलता है उतनी बार हम उस नियति को झुठलाने की ओर एक कदम और बढ़ा देते हैं जो हमारे या आशीर्वाद देने वाले के हाथ में होती ही नहीं और जिसका खामियाजा अपने अंतिम वक्त तक स्त्रियों को उठाना पड़ता है!.....
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