कविता : जागरण गीत
अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे
गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ
अतल अस्ताचल तुम्हें जाने न दूंगा
अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ।
कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम
साधना से सिहकर मुड़ते रहे तुम
अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूंगा
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ,
सुख नहीं यह, नींद में सपने सँजाना,
दुख नहीं यह, शीश पर गुरु भार ढोना।
शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक
फूल मैं उसको बनाने आ रहा हूँ।
देखकर मँझधार को घबरा न जाना
हाथ ले पतवार को घबरा न जाना।
मैं किनारे पर तुम्हें थकने न दूंगा
पार मैं तुमको लगाने आ रहा हूँ।
तोड़ दो मन में कसी सब श्रृंखलाएँ,
तोड़ दो मन में बसी संकीर्णताएँ।
बिंदु बनकर मैं तुम्हें ढलने न दूंगा
सिंधु बन तुमको उठाने आ रहा हूँ।
तुम उठो, धरती उठे, नभ शिर उठाए
तुम चलो गति में नई गति झनझनाए
विपथ होकर मैं तुम्हें मुड़ने न दूंगा
प्रगति के पथ पर बढ़ाने आ रहा हूँ।
धन्यवाद
कवि - सोहनलाल द्विवेदी।
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