बहन बाँध दे रक्षा बंधन मुझे समर में जाना है
अब के घन गर्जन में रण का भीषण छिड़ा तराना है।
दे आशीष, जननी के चरणों में यह शीश चढ़ाना है,
बहन पोंछ ले अश्रु, गुलामी का यदि दुःख मिटाना है।
अंतिम बार बाँध ले राखी
कर ले प्यार आखिरी बार
मुझको, जालिम ने फाँसी की
डोरी कर रख तैयार।।
जिसने लाखों ललनाओं के पोंछ दिए सिर के सिंदूर
गड़ा रहा कितनी कुटियाओं के दींपो पर आँख क्रूर।
वज्र गिराकर कितने कोमल ह्रदय कर दिए चकनाचूर,
उस पापी की प्यास बुझाने, बहन जा रहे लाखों शूर।।
अपना शीश कटा जननी की
जय का मार्ग बनाना है।
बहन बाँध दे रक्षा बंधन,
मुझे समर में जाना है।।
बहन शीश पर मेरे रख दे, स्नेह सहित अपना शुभ हाथ,
कटने के पहले न झुके यह ऊँचा रहे गर्व के साथ।
उस हत्यारे ने कर डाला अपना देश अनाथ,
आश्रयहीन हुई यदि तो भी ऊँचा होगा तेरा साथ।।
दीन भिखारीन बनकर तू भी,
गली -गली फेरी देना।
उठो बन्धुओ, विजयवधू को
वरो, तभी निद्रा लेना।।
आज सभी देते है अपनी बहनों को अमूल्य उपहार
मेरे पास रखा क्या है, आँखों के आँसू दो चार।
ला दो चार गिरा दूँ, आगे अपना आँचल विमल पसार,
तू कहती है - "ये मणियाँ है, इन पर न्योछावर संसार।।
बहन बढ़ा दे चरण कमल मैं
अंतिम बार उन्हें लूँ चूम।
तेरे शुचि स्वर्गीय स्नेह के,
अमर नशे में लूँ अब झूम।।
धन्यवाद
काजल साह
|