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18/10/2023 Kajal sah Bravery Views 339 Comments 0 Analytics Video Hindi DMCA Add Favorite Copy Link
मन के चार कार्य
मानव मन की चार मूलभूत क्रियाए हैं। इसे एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है। मान लो मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिलता हूं, जिनसे मैं लगभग दस वर्ष पूर्व मिल चूका हूं। मैं याद करने का प्रयास करता हूं कि मैं उससे कब मिला हूं, और वह कौन है! यह देखने कस लिए मेरे मन के अंदर मानो जाँच - पड़ताल शुरू हो जाती है कि वहां उस व्यक्ति से जुड़ी हुई कोई घटना तो अंकित नहीं है। सहसा मैं उस व्यक्ति को अमुक के रूप में पहचान लेता हूं और  कहता हूं - यह वही व्यक्ति है, जिससे मैं अमुक स्थान पर मिला था, आदि। अब मुझे उस व्यक्ति के बारे में पक्का ज्ञान हो चूका है।
उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण करके हम मन की चार क्रियाओं का विभाजन कर सकते है -

1. स्मृति : स्मृतियों का संचय तथा हमारे पूर्व - अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। यह संचय चित्त कहलाता है। इसी में हमारे भले - बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का संचय होता है। इन संस्कारों का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है। यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता है।

2. सोचने की क्रिया तथा कल्पना शक्ति - कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक विकल्पों का परिक्षण करता हैं। यह कई चीज़ों पर विचार करता है। मन की यह क्रिया मनस कहलाती है। कल्पना तथा धरणाओं का निर्माण भी मनस की ही क्रिया है।

निश्चय करना तथा निर्णय लेना : बुद्धि वह शक्ति है, जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है। इसमें सभी चीज़ों के भले तथा बुरे पक्षो पर विचार करके वान्छनीय क्या है, यह जानने की क्षमता होती है। यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति भी है, जो उसे भला क्या है तथा बुरा क्या है, करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से उचित क्या है तथा अनुचित क्या है, इसका विचार करने की क्षमता प्रदान करती है। यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व - विकास के लिए परम आवश्यक है, मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वधिक महत्त्व का है।

अहं का बोध : सभी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके - मैं खाता हूं, मैं देखता हूं, मैं बोलता हूं, मैं सुनता हूं, मैं सोचता हूं, मैं द्विधाग्रस्त होता हूं, आदि - इसी को अहंकार या मैं - बोध कहते है। जब तक यह मैं स्वयं को असंयमित देह - मन से जोड़ लेता है, तब तक मानव - जीवन इस संसार की घटनाओं तथा परिस्थियों से परिचालित होता है। इसके फलस्वरूप हम प्रिय घटनाओं से सुखी होते है और अप्रिय घटनाओं से दुखी होते है । मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित होता जाता है, उतना ही हमें इस मैं - बोध के मूल स्त्रोत का पता चलता जाता है। और उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनिक जीवन में संतुलित तथा साम्यावस्था को प्राप्त होता जाता है। ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों के द्वारा विचलित नहीं होता। मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार - मन के यह चार बिलकुल अलग - अलग विभाग नहीं है। एक ही मन को उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न - भिन्न नाम दिए गए है।

धन्यवाद
                             

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